प्रेरक प्रसंग : सच्ची दानशीलता

ईश्वरचंद्र विद्यासागर के पास एक लड़का आया और कहने लगा,  बाबुजी ! अकाल का समय है। भीख माँगना मेरा स्वभाव नहीं फिर भी माँग रहा हूँ। हो सके तो एक पैसा दे दो।
विद्यासागर तो सत्पुरूष थे। वे बोले.. बेटा ! एक पैसा चाहिए ? अगर मैं तुझे दो पैसा दूँ तो तू क्या करेगा ?
गरीब सच्चे लड़के ने कहा... एक पैसे के उबले चने लेकर खाऊँगा और एक पैसा माँ को दूँगा।
विद्यासागर ने पूछा.. अगर चार पैसे तुझे दूँ तो ?



लड़का.. दो पैसे के चने घर ले जाऊँगा और दो पैसे माँ को दूँगा।
विद्यासागर ने फिर पूछा.. अगर मैं तुझे दो आने दे दूँ तो ?
लड़के ने सिर नीचे कर दिया और चलता बना।
विद्यासागर ने कलाई से पकड़ा और बोले..
क्यों जाता है ?
आप एक पैसा तो देते नहीं, दो आने इस जमाने में कौन दे सकता है ? आप मेरी मजाक उड़ाते हैं।
विद्यासागर... नहीं, समझ ले मैं तुझे दो आने दूँ तो तू क्या करेगा ?
लड़का... एक पैसे के चने अभी खाऊँगा, तीन पैसे के चने घर ले जाऊँगा और एक आना पूरा माँ को दूँगा।
विद्यासागर फिर उस सच्चे लड़के को आजमाते है...
अगर तुझे चार आने दूँगा तो क्या करेगा ?
उस हिम्मतवान लड़के ने कहा.. दो आने को जैसे आगे कहा वैसे ही उपयोग में लाऊँगा और... 
बाकी के दो आने के आम आदि फल खरीद कर बेचूँगा और उससे अपना गुजारा चलाऊँगा।
विद्यासागर ने उसकी सच्चाई, समझदारी और स्वाश्रय को मन ही मन सराहते हुए उसे एक रूपया हाथों में थमा दिया। 
लड़का तो हैरान हो गया कि वास्तव में यह आदमी अदभुत है ! क्या कोई फरिश्ता है जो स्वर्ग से मेरा भाग्य खोलने के लिए नीचे उतरा है ! 
लड़का रूपया लेकर उनका अभिवादन करता हुआ चलता गया।
दो साल के बाद विद्यासागर कलकत्ते की बाजार से गुजर रहे थे तब एक युवक ने उन्हें रोका। 
हाथ जोड़कर, आजीनिजारी करते हुए कहने लगा... कृपा करके मेरी दुकान पर पधारिये।
भाई ! मैं तो तुझे पहचानता भी नहीं और जिस दुकान की ओर तू इशारा कर रहा है, वह इतनी बड़ी दुकान किसकी है ?
आप चलो तो सही ! आपकी ही है। लड़के की आवाज में नम्रता और कृतज्ञता थी।
विद्यासागर दुकान पर गये।
आप बैठो, यह आपकी ही दुकान है।
युवक की आँखें कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए छलछला रही थी।
विद्यासागर... भाई ! मैं तो तुझे जानता ही नहीं।
मैं वह लड़का हूँ, जिसको आपने एक पैसा, दो पैसा, एक आना, दो आना, चार आना कहते हुए एक रूपया दिया था। 
यह आपके एक रूपये का रूपांतर है, आपकी कृपा का प्रसाद है।
लड़का अब विद्यासागर के चरणों में गिर पड़ा।
विद्यासागर के चित्त में उस समय तो अनहद आनंद आया, शांति मिली और और अब उनकी प्रसिद्धि यहाँ सत्संग में आप लोगों तक पहुँची। 
अगर वे उस रूपये को अपने मोह और स्वार्थ में उड़ा देते तो क्या मिलता ?
तप करे पाताल में, प्रकट होय आकाश।
रूपयों में, वस्तुओं मे एवं भोग में जहाँ भी आपका स्वत्व है, आपकी मालिकी है वह अगर आप परहित के लिए खर्च कर देते हैं तो आपकी कीर्ति स्थायी हो जाती है। 
धोखा-धड़ी फरेब से किसी की कीर्ति होती दिखती हो तो वह अस्थायी है। 
कोई अगर अपने सही पसीने की कमाई से भोग न भोगकर सदुपयोग में खर्चता है तो उसका यश स्थायी हो जाएगा।