महात्मा गांधी ने एक नहीं कई बार ये बात अपने भाषणों में कही है कि हिंदू धर्म का मतलब उनके अनुसार क्या है या कौन सा शख्स हिंदू कहला सकता है. अपने लंबे सार्वजनिक जीवन में गांधीजी ने कभी ये बताने से गुरेज नहीं किया कि वो उनकी आस्था हिंदू धर्म में है. वो खुद को अच्छा हिंदू समझते हैं. उन्होंने समय समय पर ये बातें अपने लेखों में भी लिखीं.
गांधी जी हमेशा पूजा-प्रार्थना में भरोसा करते हैं. यहां तक कि वो अपने अनुयायियों से कहते थे कि उन्हें अपना जीवन कैसे जीना चाहिए लेकिन ये गांधीजी की ही खासियत थी कि एक हिंदू होते हुए भी वो दूसरे धर्म के लोगों के प्रिय रहे और धार्मिक तौर पर हर धर्म का आदर करते रहे.
'गांधी वांगमय' के खंड 23 के पेज 516 में उन्होंने ये व्याख्या की कि हिंदू धर्म कौन है और कौन सा शख्स खुद को हिंदू कह सकता है. उनका कहना था, "अगर मुझसे हिंदू धर्म की व्याख्या करने के लिए कहा जाए तो मैं इतना ही कहूंगा-अहिंसात्मक साधनों द्वारा सत्य की खोज. कोई मनुष्य ईश्वर में विश्वास नहीं करते हुए भी अपने आपको हिंदू कह सकता है."
बकौल गांधी, "सत्य की अथक खोज का ही दूसरा नाम हिंदू धर्म है. निश्चित रूप से हिंदू धर्म ही सबसे अधिक सहिष्णु धर्म है. वहीं वांगमय 28 में पेज 204 पर उन्हें ये कहते हुए उद्धृत किया गया, हिंदू धर्म में हर धर्म का सार मिलेगा, जो चीज इसमें नहीं है, वो असार और अनावश्यक है."
गांधीजी ने 20 अक्टूबर 1927 में 'यंग इंडिया' में एक लेख लिखा "मैं हिंदू क्यों हूं". इसमें उन्होंने लिखा, "मेरा जन्म एक हिंदू परिवार में हुआ, इसलिए मैं हिंदू हूं. अगर मुझे ये अपने नैतिक बोध या आध्यात्मिक विकास के खिलाफ लगेगा तो मैं इसे छोड़ दूंगा."
गांधीजी का कहना था, जिन धर्मों को मैं जानता हूं, उनमें मैने इसे सबसे अधिक सहिष्णु पाया है. इसमें सैद्धांतिक कट्टरता नहीं है
"अध्ययन करने पर जिन धर्मों को मैं जानता हूं, उनमें मैने इसे सबसे अधिक सहिष्णु पाया है. इसमें सैद्धांतिक कट्टरता नहीं है, ये बात मुझे बहुत आकर्षित करती है. हिंदू धर्म वर्जनशील नहीं है, इसलिए इसके अनुयायी ना केवल दूसरे धर्मों का आदर कर सकते हैं बल्कि वो सभी धर्मों की अच्छी बातों को पसंद कर सकते हैं और अपना सकते हैं."
"यंग इंडिया" के छह अक्टूबर 1921 के अंक में लिखा, "मैं अपने को सनातनी हिंदू इसलिए कहता हूं क्य़ोंकि, मैं वेदों, उपनिषदों, पुराणों और हिंदू धर्मग्रंथों के नाम से प्रचलित सारे साहित्य में विश्वास रखता हूं और इसीलिए अवतारों और पुनर्जन्म में भी. मैं गो-रक्षा में उसके लोक-प्रचलित रूपों से कहीं अधिक व्यापक रूप में विश्वास रखता हूं. हर हिंदू ईश्वर और उसकी अद्वितीयता में विश्वास रखता है, पुर्नजन्म और मोक्ष को मानता है."
गांधीजी मूर्ति पूजा में भी विश्वास रखते थे, उन्होंने इसी लेख में लिखा," मैं मूर्ति पूजा में अविश्वास नहीं करता."
गांधीजी ने "नवजीवन" में 07 फरवरी 1926 के अंक में लिखा, "जब जब इस धर्म पर संकट आया, तब तब हिंदू धर्मावलंबियों ने तपस्या की है. उसकी मलिनता के कारण ढूंढे और उनका निदान किया. उसके शास्त्रों में वृद्धि होती रही. वेद, उपनिषद, स्मृति, पुराण और इतिहासदि का एक साथ एक ही समय में सृजन नहीं हुआ बल्कि प्रसंग आने पर विभिन्न ग्रंथों की सृष्टि हुई. इसलिए उनमें परस्पर विरोधी बातें तक मिल जाएंगी."
गांधीजी ने ये भी साफ कहा कि छूआछूत को मैं हिंदू धर्म का एक सबसे भारी दोष मानता आया हूं. ये सच है कि ये दोष हमारे यहां परंपरा से चला आ रहा है.
गांधी ने छूआछूत यानि अपृश्यता को हिंदू धर्म का सबसे बड़ा दोष माना. उन्होंने "यंग इंडिया" के अपने एक लेख में लिखा, "अपृश्यता को मैं हिंदू धर्म का एक सबसे भारी दोष मानता आया हूं. ये सच है कि ये दोष हमारे यहां परंपरा से चला आ रहा है. यही बात दूसरे बहुत से बुरे रिवाजों के साथ भी लागू होती है. ये सोचकर मुझे शर्म आती है कि लड़कियों को लगभग वेश्यावृत्ति के अर्पित कर देना हिंदू धर्म एक अंग था."
"मैं काली के आगे बकरे की बली देना अधर्म मानता हूं और इसे हिंदू धर्म का अंग नहीं मानता. इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी समय धर्म के नाम पर पशु-बली दी जाती थी लेकिन ये कोई धर्म नहीं है और हिंदू धर्म तो नहीं ही है."